The birth of the demon, the origin of the god.
दैत्त की उत्पती उसके प्रारम्भिक कर्मो से होती है।जैसे जैसे उसके कर्म चर्म पर पहुचते है।उसका विकास होता जाता है।जब अच्छाई उसमें पूर्ण रूप से चली जाती है। तब उसका पूर्ण विकास हो जाता है।दैत पूर्ण रूप से अपने कर्मो में माहिर हो जाता है।स्त्री का पाप उसके कर्मो को और महान बनाता है।संसार उसे बहुत घृणा करता है।दैत्त को अपनी मंजिल तक पहुचने तक बहुत कुछ खोना पडता है।तब उसे अपनी मंजिल मिलती है।यह खुशी उसकी दिल की खुशी होती है।यह उसके कर्म ईश्वर पर विजय प्राप्ती कराते है।दैत और देव ईश्वर के ही रूप है।सब कुछ ईश्वर की ही मर्जी से होता है।हम सब कुछ भी नही है।
दैत्यः प्रारब्धकर्माद् जायते ।यथा तस्य कर्म त्वचं प्राप्नोति ।विकसति ।यदा तस्मिन् भद्रं सर्वथा गतं भवति । तदा सा पूर्णतया विकसिता भवति राक्षसः पूर्णतया निपुणः भवति स्त्रियाः पापेन तस्याः कर्माणि महत्तराणि भवन्ति लोकः तां बहु द्वेष्टि यावत् राक्षसेन गन्तव्यं न प्राप्नोति तावत् राक्षसेन बहु हानिः कर्तव्या भवति ततः सः गन्तव्यं प्राप्नोति .एतत् सुखं तस्य हृदयस्य सुखम् अस्ति।तस्य कर्मभिः एव तस्य ईश्वरस्य विजयः भवति।असुराः देवाः च ईश्वरस्य रूपाणि सन्ति।ईश्वरस्य इच्छानुसारं सर्वं भवति।वयं सर्वं स्मः।न भवति।